18 June, 2013

पार्क लोक प्रशासन जर्नल (महाविशेषांक) का दूसरा आलेख

लोक प्रशासन की एक सामान्य समझ

प्रमोद कुमार मिश्र

लोकप्रशासन को समझने के लिए बहुत प्रयास करने की जरूरत नहीं है। सीधे व सरल ब्दों में किसी दे की मानवीय व भौतिक संसाधनों को नियंत्रित व निर्देशित करने के लिए सरकारें जिस उपकरण का प्रयोग करती हैं वह लोकप्रशासन है। यह किसी साध्य (लोकहित) का साधन है और किसी संप्रभु (राज्य) के अधीन है। दूसरे ब्दों में यह सरकारों व जनता के बीच की एक कड़ी है। वस्तुतः अपने अपने युग व संदर्भों के अनुसार विद्वानों ने इसकी परिभाषा की है। राजनीति व प्रशासन के अलगाव के दौर में लोक प्रशासन को विधि के व्यवस्थित व कुशल क्रियान्वयनकर्ता (विल्सन) के रूप में मान्यता दी गई, जबकि प्रबंधकीय रूझानों के दौर में इसे राज्य के लक्ष्यों को पाने हेतु मानवीय व भौतिक संसाधनों के प्रबंधन (व्हाइट) के रूप में देखा गया। दूसरी तरफ राजनीति व प्रशासन में साहचर्य के दौर में लोक प्रशासन को आठवीं राजनीतिक प्रक्रिया (एपिल्बी) के रूप में मान्यता मिली। लोक प्रशासन की परिभाषा के संदर्भ में इतनी विभिन्नताएँ हैं कि कई बार दिग्भ्रमित हो जाना पड़ता है कि वास्तव में हम प्रशासन की परिभाषा कर रहे हैं या राज्य की। इसे कभी लोकहित का झंडाबरदार कहा जाता है तो कभी मूल्यों व समरसता का प्रतिनिधि। यदि ये सब काम प्रशासन का है तो राज्य व सरकारों का क्या काम है? शायद यही कारण है कि वाल्डो, मोजर, स्टेन, व राबर्ट पार्कर जैसे लोग इसकी परिभाषा करना ही व्यर्थ समझते हैं।
प्रशासन व लोक प्रशासन का अर्थ
   प्रशासन में नियोजन, संगठन, स्टाफ, निदेशन, समन्वयन, बजटिंग व मूल्यांकन आदि जैसी प्रक्रियाओं का व्यवहार किया जाता है।इन प्रक्रियाओं के बेहतर प्रबंधन व क्रियान्वयन के जरिए इच्छित लक्ष्यों को पाना ही प्रशासन है। हेनरी फेयोल कहते हैं कि प्रशासन...को सरकार के रूप में समझने की भूल न करें। शासन करने का मतलब है उपलब्ध सभी संसाधनों के बेहतरीन इस्तेमाल के जरिए लक्ष्यों को पाने की दिशा में किसी उपक्रम का संचालन करना। वस्तुतः यह छह आवश्यक प्रकार्यों के प्रभावी कार्यकरण में निहित है। प्रशासन इनमें से केवल एक प्रकार्य है, जबकि बड़े प्रबंधक इस पर इतना समय देते हैं जैसे उनका मुख्य कार्य केवल प्रशासन ही है। इवान एस बाँकी के संपादन में छपे प्रशासन व प्रबंधन के शब्दकोष के अनुसार, 'प्रशासन उन सभी विचारों, तकनीकियों, प्रक्रियाओं व कार्य व्यवहारों का कुल योग है जिनके जरिए किसी संगठन को इसके पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को पाने हेतु औपचारिक या अनौपचारिक रूप से संगठित मानवीय व भौतिक संसाधनों को संगठित, नियंत्रित व समन्वित करने में मदद मिलती है।इस प्रकार, प्रशासन तकनीकी गतिविधियों से अलग है, यद्यपि कि यह स्वयं में एक विशेषज्ञता है तथा कुछ निश्चित कौशलों की मांग करता है।
   प्रशासन के अंतर्गत किन गतिविधियों को माना जाए इस संबंध में दो दृष्टिकोण प्रचलित हैं - एकीकृत व प्रबंधकीय दृष्टिकोण। पहले दृष्टिकोण के मुताबिक प्रशासन में वे सभी क्रियाएँ शामिल की जाती हैं जिनका संबंध नीतियों के क्रियान्वयन से संबंधित होता है, जैसे- लिपिकीय, तकनीकी व प्रबंधकीय क्रियाएँ। दूसरा दृष्टिकोण यानी प्रबंधकीय दृष्टिकोण केवल प्रबंधन संबंधी क्रियाओं को ही प्रशासन मानता है। प्रशासन में लोक शब्द जुड़ने से इसका क्षेत्र सीमित हो जाता है। लेकिन प्रश्न है कि ये सीमाएँ क्या हैं? एक विचार लोक प्रशासन को राज्य से जोड़ता है। यानी लोक प्रशासन राज्य की गतिविधियों के अध्ययन से संबंधित है, लेकिन इन गतिविधियों का संबंध कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका से हो सकता है। बहुत से अन्य विचारक लोक प्रशासन को सिर्फ कार्यपालिका तक ही सीमित करते हैं। इस तरह के विचार संकुचित दृष्टिकोण के समर्थक माने जाते हैं, जबकि शासन के तीनो शाखाओं से लोक प्रशासन का संबंध जोड़ने वाली विचारधारा व्यापक दृष्टिकोण वाली मानी जाती है।
   विलोबी ने 1927 में लिखा, व्यापक अर्थ में, लोक प्रशासन सरकारी कार्यों के वास्तविक निष्पादन  से संबंधित है, चाहे वे कार्य सरकार की किसी भी शाखा से संबंधित क्यों न हों...अपने संकुचित अर्थ में, वे केवल प्रशासनिक  शाखा की गतिविधियों का संकेत करते हैं। ई एन ग्लैडन सहित कुछ अन्य विचारक लोक प्रशासन को केवल कार्यपालिका तक सीमित करते हैं। ग्लैडन के ब्दों में,लोकप्रशासन का असली क्षेत्र सरकार के प्रशासनिक क्षेत्र में पाया जाता है जो प्रथमतः लोक मामलों के प्रबंधन व संचालन के लिए जिम्मेदार होता है। प्रशासन सरकार का प्रशासनिक पक्ष होता है और इस प्रकार विधायिका व न्यायपालिका से भिन्न होता है।जान कोरसन व जोसेफ हैरिस इसे सरकार का क्रियाभाग बताते हैं। कहते हैं, लोक प्रशासन निर्णय निर्धारण है, किए जाने वाले कार्य की आयोजना है, उद्देश्यों व लक्ष्यों का निर्धारण है, सरकारी कार्यक्रमों हेतु धन व जन समर्थन हासिल करने के लिए नागरिक संगठनों व विधायिका के साथ मिलकर काम करना, संगठन खड़े करना, व उनका पुनर्शोधन करना है, कार्मिकों का निर्देशन व पर्यवेक्षण करना है, नेतृत्व देना, संचार संप्रेषित करना व हासिल करना है, कार्यपद्धतियों व प्रक्रियाओं को निर्धारित करना है, निष्पादन का मूल्यांकन करना, नियंत्रण का प्रयोग करना, और सरकारी कार्यकारिणी द्वारा किए जाने वाले अन्य कार्य निष्पादित करना है। यह सरकार का क्रियात्मक पक्ष है, वह साधन है जिसके जरिए सरकार अपने उद्देश्यों को हासिल करती है। राबर्ट डेनहार्ट ने 1995 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन - एन एक्शन ओरिएंटे में इसे आधुनिक ब्दावली देते हुए लिखा है कि लोकप्रशासन सरकारी कार्यक्रमों के प्रबंधन से वास्ता रखता है।
   अपनी पुस्तक माडर्न पब्लिक एडमिनिस्ट्रेन में फेलिक्स ए नीग्रो कहते हैं कि लोकप्रशासन शासन की तीनों शाखाओं तथा उनके अंतर्संबंधों को आच्छादित करता है। नीग्रो कहते हैं, लोकप्रशासन सरकारी ढाँचे में एक सहकारी सामूहिक प्रयास है, इसकी लोकनीतियों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका है और इस तरह यह राजनीतिक प्रक्रिया का एक भाग है, यह निजी प्रशासन से कई दृष्टियों से भिन्न है, और यह समाज को सेवाएँ देने में कई निजी समूहों व व्यक्तियों से घनिष्ठ रूप से संबंधित रहता है।
युग व संदर्भों क अनुसार परिभाषा में बदलाव
   कुल मिलाकर यह कि युग व संदर्भों के अनुसार लोकप्रशासन की परिभाषा बदलती रही है।शुरूआती परिभाषाएँ विल्सन के दृष्टिकोण से भिन्न  नहीं थीं। विल्सन का मानना था कि लोकप्रशासन विधि का व्यवस्थित व कुल क्रियान्वयन है।गुडनाऊ ने इस दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया।1900 ई. में लोकप्रशासन की अपनी पुस्तक में उसने लिखा सरकार की सभी प्रणालियों में सरकारों के दो प्रधान या अंतिम कार्य होते हैं-राज्य के इच्छा की अभिव्यक्ति और इस इच्छा का क्रियान्वयन।सरकार के सभी अंग अलग अलग इन्हीं कामों में लगे रहते हैं।ये प्रकार्य क्रमशः राजनीति व प्रशासन हैं।राजनीति को नीतियाँ बनाना अथवा राज्य की इच्छा को अभिव्यक्त करना होता है जबकि प्रशासन को इन नीतियों को क्रियान्वित करना होता है। लोकप्रशासन के विषय विकास में इसे राजनीति-प्रशासन द्विभाजन का काल कहा जाता है।इस धारा की परिभाषाएँ लोकप्रशासन को राज्य या सरकार के कार्यकारी या संचालनात्मक पक्ष के समान मानती हैं।इस तरह की परिभाषाएँ लोकप्रशासन को राजनीति से अलग करके उसे ज्यादा कार्यकुल व कारगर बनाना चाहती हैं जिससे सत्ता को अपनी नीतियाँ लागू करने में सहूलियत हो।इसलिए विल्सन कहता है कि संविधान बनाना आसान है किंतु उसे चलाना बहुत ही कठिन है।यह संविधान चलाने में आसानी हो इसलिए लोकप्रसन को कार्यकुल व प्रशिक्षित होना चाहिए।लेकिन इस काल की परिभाषाएँ लोकप्रशासन को सीमित व संकीर्ण बना देती हैं।
  1920 व 30 के दक के शुरुआत में लोकप्रशासन की परिभाषाओं में प्रबंधन के प्रति रूझान बढ़े।1926 में लोकप्रशासन विषय पर प्रथम पाठ्यपुस्तक रचने वाले अमेरिकी विद्वान एल डी व्हाइट ने लोकप्रशासन की परिभाषा राज्य के उदेश्यों की प्राप्ति हेतु मानवीय व भौतिक साधनों के प्रबंधन के रूप में की।उन्होंने लोकप्रशासन को आधुनिक सरकारों की समस्या के  हृदय के रूप मे देखा। बाद में 1958 में उसने लिखा कि उदेश्यों को पूरा करने या लोकनीतियों के क्रियान्वयन हेतु चलाई जाने वाली सभी गतिविधियों को लोकप्रशासन में शामिल किया जाता है।इसी प्रकार 1933 में डिमोक ने लिखा कि लोकप्रशासन कानूनों व सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में शामिल प्रबंधन के तरीकों और क्ति व समस्याओं तथा संगठन व कार्मिकों का अध्ययन है। वस्तुतः लोकप्रशासन का प्रबंधन के प्र्रति रूझान इसकी जड़ों में ही था क्योंकि इसके संस्थापकों ने इसके लिए जो मूल्य निर्धारित किया था वह कार्यकुशलता, प्रभावशीलता व मितव्ययिता का था।प्रबंधन एक ऐसा रास्ता था जिस पर चल कर ही इन मूल्यों को प्राप्त किया जा सकता था।वेबर टेलर गुलिक ऊर्विक फेयोल आदि जैसे विचारकों की मुख्य चिंता यही मूल्य थे। इन्होंने अपने विचारों व खोजों के जरिए प्रबंधन की कला को विकसित करने तथा संगठन की उत्पादकता को बढ़ाने में योग दिया।
   लेकिन 40 के दक में क्रांति घटित हुई।इस समय तक विल्सन के द्विभाजन संबंधी विचार को उल्टा खड़ा किया जा चुका था।अब राजनीति व लोकनीति को लोकप्रशासन का अभिन्न अंग माना जा चुका था। लोकप्रशासन को आठवीं राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में दर्शाते हुए पाल एपिल्बी ने घोषणा की कि लोकप्रशासन नीतिनिर्धारण है। लेकिन यह नीति निर्धारण स्वायत्त, अनन्य अथवा एकाकी नहीं है। यह एक ऐसे क्षेत्र से संबंधित नीति निर्धारण है जहाँ क्तिशाली ताकतें संघर्षरत होती हैं। ये ताकतें समाज में व समाज द्वारा पैदा होती हैं। यह नीति निर्धारण फिर भी, विभिन्न किस्म के अन्य नीति निर्धारकों के अधीन होता है। लोकप्रशासन राजनीति की कई उन मूलभूत प्रक्रियाओं में से एक है जिनके माध्यम से लोग प्रशासन पर नियंत्रण रखते हैं व उसका लाभ लेते हैं। एपिल्बी के इस जोरदार वक्तव्य के बाद शायद ही किसी ने इस बात पर कोई  आपत्ति जताई है कि राजनीति, प्रशासन व नीति एक दूसरे से अंतर्ग्रथित  हैं।
   इस प्रकार स्पष्ट है कि लोकप्रशासन वास्तव में सरकार का क्रियात्मक पक्ष है।सामान्य तौर पर यह कार्यपालिका शाखा से संबद्ध है जो सरकार का संचालक व सर्वाधिक प्रत्यक्ष भाग है।दूसरे ब्दों में यह मुख्यतः कार्यकारिणी व सरकारी गतिविधियों के क्रियान्वयन पक्ष से संबंधित है।परिवर्तन के एजेंट के रूप में यह जनता की इच्छा का व्यवस्थित क्रियान्वयन है जिसके तहत इसे राजनीति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना होता है।गार्डन एवं मिल्कोविच (1995) के अनुसार लोकप्रशासन को उन सभी प्रक्रियाओं, संगठनों व व्यक्तियों (सरकारी) के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है जो विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका द्वारा जारी व स्वीकृत कानूनों व अन्य नियमों को लागू करने में लगे हैं।
लोकप्रशासन की अंतर्वियक प्रकृति
   एक व्यवसाय के रूप में लोकप्रशासन की प्रकृति जनसेवा की है।दूसरी तरफ एक विषय के रूप में इसकी प्रकृति अंतर्विषयक किस्म की रही है।80 के दक में जाकर ही इसकी अपनी पहचान बनी जो कई अन्य विषयों का सम्मिश्रण थी।इससे पूर्व यह इन विषयों का अभिन्न हिस्सा था।आज यह राजनीतिविज्ञान, अर्थशास्त्र, प्रबंधन, उद्योग प्रशासन, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान व विधि के एक बड़े हिस्से को समाहित करता है। लेकिन कुल मिलाकर समग्र रूप से जो चीज बनती है वह कुल के योगफल से कहीं ज्यादा बड़ी है। लोकप्रशासन ने जहाँ जहाँ से ज्ञान हासिल किया है उसे मैकर्डी ने चार विचारधाराओं के रूप में वर्गीकृत किया है- 1. परंपरागत विचारधारा 2. व्यवहारवाद 3. बुद्धिपरक विचारधारा, और 4. राजनीतिक विचारधारा।
   मैकर्डी ने परंपरागत विचारधारा का काल 1880 से 1945 के बीच माना है। इस धारा ने मानव संबंधों पर बल दिया जिसका विकास समाजशास्त्र व मनोविज्ञान से किया गया, सुधारों में इसकी रूचि राजनीतिविज्ञान व कानून से प्रेरित है। और, इसके द्वारा वैज्ञानिक प्रबंध के विचारों का प्रयोग अर्थशास्त्र व उद्योगों से लिया गया है।यह धारा वर्णन व प्रयोगों पर अपना ध्यान केंद्रित करती है।दूसरा समुदाय व्यवहारवादी चिंतकों का है जो खासकर 1945 से 1965 के बीच सक्रिय रहा।इसने वर्णन पर खासा ध्यान दिया।इसके तहत नौकरशाही, संगठन सिद्धांत व व्यवहार, तुलनात्मक लोकप्रशासन और संगठनात्मक विकास आदि पर विहंगम रूप से अध्ययन किया गया।व्यवहारवाद की उपज खासकर मनोविज्ञान व समाजशास्त्र जैसे सामाजिक विज्ञानों से थी।तीसरी धारा तर्कवादियों (Rationalist) की थी जो मैकर्डी के अनुसार 1965 से 1980 तक सक्रिय रहे।इसने अनुप्रयोगों पर बल दिया और प्रधानतः अर्थशास्त्र व औद्योगिक प्रशासन ने इसे पुष्पित व पल्लवित किया।इसने वैज्ञानिक प्रबंधन के क्षेत्र में परंपरागत प्रतिमानों की रूचि को और आगे विकसित किया।इस समुदाय के समर्थकों ने नीति विश्लेषण व प्रबंधन विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधानों से संबंधित विचारों को आगे बढ़ाया।
   लोकप्रशासन का चौथा बड़ा रूझान राजनीति विज्ञान की तरफ था जो 70 के दक के उत्तरार्ध से लेकर वर्तमान तक प्रभावी है।इस विचार समुदाय ने वृहद् पैमाने पर राजनीति विज्ञान व कानून से सामग्रियाँ लीं।राजनीति समुदाय का ऐतिहासिक जुड़ाव सुधार आंदोलनों व विल्सन के राजनीति प्रशासन अलगाव संबंधी विचारों से था।इसके अनुसंधान, साहित्य व शिक्षण सभी का जोर लोक कार्यक्रमों, लोकनीतियों का क्रियान्वयन, कार्मिक, बजटिंग, वित्त, राज्य व स्थानीय सरकारों, और लोकसेवा के सर्वोच्च मूल्यों पर था।अस्तु, लोकप्रशासन के विकास सिद्धांत में रुचियों की विविधता व पृष्ठभूमि को देखते हुए यह पाया गया है कि इसके क्षेत्र के बारे में कम ही सहमतियाँ रही हैं।मैकर्डी के अलावा लोकप्रशासन के अंतर्विषयक प्रकृति पर बल देने वाले विद्वान हैं-ग्राहम व फ्रेडरिक्न।
   उल्लेखनीय है कि लोकप्रशासन का आरंभिक अध्ययन पहले राजनीति विज्ञान के अंतर्गत ही होता था और निश्चित ही बहुत से विद्वान इस मत के समर्थक हैं कि लोकप्रशासन राजनीति विज्ञान का एक उपक्षेत्र है।इस नजरिए से सरकारी एजेंसियाँ शासन की प्रक्रियाओं में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।कई प्रकार से ये एजेंसियाँ सरकारी फैसलों को प्रभावित करती हैं-चाहे वह नीति निर्धारण को प्रभावित करने की बात हो या क्रियान्वयन में विवेकाधिकार के इस्तेमाल का मुद्दा।और यदि ऐसा है तो, यह तर्क दिया जाता है कि लोकप्रशासन राजनीति विज्ञान का हिस्सा है, और जो सिद्धांत इसके अध्ययन व व्यवहार के लिए उपयुक्त है वह राजनीतिक सिद्धांत है।इस मत के समर्थकों के अनुसार लोकप्रशासन के क्षेत्र में किसी भी सैद्धांतिक विमर्श का ध्यान न्याय स्वतंत्रता व समानता जैसे सिद्धांतों पर होना चाहिए।
   दूसरी तरफ कुछ अन्य विचारकों का तर्क है कि लोक संगठन सबसे पहले एक संगठन होते हैं इसलिए सर्वप्रथम उन्हें प्रबंधकीय कुशलता से जुड़े प्रश्नों का सामना करना पड़ता है।उदाहरण के लिए प्रत्यायोजन का प्रयोग निजी या सरकारी प्रत्येक जगह एक ही जैसा है।इस मत के प्रस्तावकों के अनुसार लोकप्रशासन के क्षेत्र में किसी भी सैद्धांतिक विमर्श का ध्यान संचार अभिप्रेरण व नेतृत्व जैसे मुद्दे होने चाहिए।
व्यवसाय के रूप में लोकप्रशासन
   इन दोनो मतो के बीच एक अलग तरह की विचारधारा का भी विकास हुआ।उदाहरण के लिए ड्वाइट वाल्डो कहते हैं कि लोकप्रशासन एक पेशा अथवा एक व्यवसाय (profession) है जो भिन्न भिन्न विधाओं व बहुबिध सैद्धांतिक दृष्टिकोणों से मिलकर बना है।वाल्डो इसकी सादृश्यता चिकित्सा के क्षेत्र में तलाते हैं- स्वास्थ्य या बीमारी का कोई एक अकेला सिद्धांत नहीं है।इससे संबंधित सिद्धांत व तकनीकियाँ निरंतर बदलती रहती हैं, और ज्यादातर अज्ञात हैं।कई महत्वपूर्ण चिकित्सकीय प्रश्नों पर तल्ख विवाद है, और कला का तत्व यहाँ महत्वपूर्ण व व्यापक बना हुआ है।बारीकी से देखें तो स्वास्थ्य का प्रश्न भी अच्छे प्रशासन की तरह अपरिभाषेय ही है।लेकिन फिर भी चिकित्सा संस्थाएँ विभिन्न क्षेत्रों के कार्यों से सीखकर डाक्टरों को शिक्षित व प्रशिक्षित करती हैं।इसी तरह, वाल्डो तर्क देते हैं कि भविष्य के प्रशासकों के प्रशिक्षण में भी इसी प्रकार सामाजिक विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में हुए कार्यों से प्राप्त अनुभवों को शामिल किया जाना चाहिए।लोकसंगठनों का एक सुसंगत सिद्धांत इस पहलू व उपक्रम के प्रति मताग्रही नहीं है।व्यवसाय के रूप में लोकप्रशासन से संबंधित यह विचारधारा आज के दिन संभवतः सर्वाधिक प्रचलित है।
   लेकिन इस मत को मानने में कुछ समस्याएँ हैं।एक यह कि अन्य क्षेत्रों से जुड़े सिद्धांतों को पेशे के मार्गदर्शक सिद्धांतों कें रूप में स्वीकार करने पर व्यवहारिक समस्याएँ उठ खड़ी होंगी।प्रशासनिक पेशेवरों के नजरिए से न तो राजनीतिक सिद्धांत और न ही संगठन संबंधी सिद्धांतों का सीधा तालमेल उन मुद्दों से है जिनका संसार वास्तव में सामना कर रहा है सीधे शब्दों में, प्रशासन से सीधे जुड़े प्रश्नों  से उनका जुड़ाव न के बराबर है।इससे एक दूसरा प्रश्न खड़ा होता है जो अलग अलग धाराओं वाले भिन्न भिन्न विधाओं के दृष्टिकोणों से उद्भूत सिद्धांतों में सामंजस्य स्थापित करने की सैद्धांतिक समस्या से जुड़ा है। उदाहरणार्थ, स्वतंत्रता व समानता के सिद्धांतों में राजनीति विज्ञान की रूचि तथा सोपानिक संरचना में संगठन सिद्धांतों की रूचि के बीच कैसे तालमेल स्थापित किया जाएअस्तु पेशे के रूप में लोकप्रशासन का अध्ययन संबंधी दृष्टिकोण इस अर्थ में विफल है कि यह सदैव दूसरों से ही लेता है और प्रशासन से सीधे जुड़े सरोकारों पर कभी विचार ही नहीं करता।और यदि हम ऐसा मान लें तो क्या लोकप्रशासन का कोई सुसंगत सिद्धांत विकसित कर पाने की कोई आशा बचती हैवस्तुतः यहाँ लोकप्रशासन को पुनर्परिभाषित करने का मुद्दा है।
लोकप्रशासन को पुनर्परिभाषित करने का मुद्दा
   डेनहार्ट का मानना है कि लोकप्रशासन के क्षेत्र को पुनर्परिभाषित करने वाले सभी प्रयासों को सामान्यतः लोकसंगठनों को अपना केंद्रबिदु बनाना चाहिए न कि सरकारी एजेंसियों के प्रशासन को, और इसे लोकप्रशासन को एक प्रक्रिया (Process) के रूप में देखना चाहिए न कि किसी खास किस्म की संस्था (जैसे नौकरशाही) के अंदर घटित होने वाली गतिविधियों के रूप में। ऐसी किसी भी मान्य परिभाषा को कारगर परिवर्तन प्रक्रियाओं के प्रति लोकसंगठन सिद्धांत की चिंता को न्याय, समानता, स्वतंत्रता व जिम्मेदारी से जुड़ी राजनीतिक सिद्धांत की चिंताओं से जोड़ना होगा।डेनहार्ट का सुझाव है कि राजनीतिक रूप से परिभाषित सामाजिक मूल्यों के अनुसरण में लोकप्रशासन का सरोकार परिवर्तन के प्रबंधन से है।वह लिखते हैं, लोक प्रबंधक राजनीतिक व प्रशासनिक दुनिया से वास्ता रखता है और इसलिए वह न तो स्वतंत्र अभिनेता है और न ही राजनीतिक प्रणाली का अकेला उपकरण।इस विलक्षण स्थिति में प्रबंधक उन मूल्यों को स्वीकार करता है, व्याख्या करता है और उन्हें प्रभावित करता है जो कौलों व ज्ञान के प्रयोगों का दिशानिर्देन करते हैं।
   डेनहार्ट की यह नई परिभाषा संगठनात्मक विश्लेषण और राजनीति विज्ञान की अंतर्दृष्टि को एक साथ ला खड़ा करती है, साथ ही अन्य विधाओं के योगदान के लिए भी जगह छोड़ती है।इस तरह से मात्र लोकप्रशासन (Public Administration) से संबंधित सिद्धांतों की जगह लोक संगठनों (Public Organisation) का सिद्धांत विकसित कर पाना संभव हो जाता है।इसके अलावा, नई परिभाषा जनजीवन को प्रभावित करने में लोकसंगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका व उनकी गतिविधियों के प्रबंधन की उनकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का सुझाव देती है जो एक तरह से लोकतंत्र के मानकों के अनुरूप है।डेनहार्ट के अनुसार नई परिभाषा की मान्यता है कि लोकप्रबंधक इस स्थिति में होता है कि वह न केवल विधायी आदे का पालन कर सकता है बल्कि सामाजिक हितों व जरूरतों को सीधे अभिव्यक्त भी कर सकता है।प्रबंधक को यह मान्यता देकर यह नई परिभाषा राजनीति व प्रशासन के बीच अलगाव का एक समाधान भी प्रस्तुत  करती है।यह दृष्टिकोण प्रशासकों के सक्रिय भूमिका का सुझाव देता है।लेकिन साथ ही लोकसंगठनों में कार्य के नैतिक व राजनैतिक आधारों को भी रेखांकित भी करता है।लोकप्रशासन के क्षेत्र से संबंधित यह नया दृष्टिकोण मानता है कि चूंकि लोकप्रबंधक सामाजिक मूल्यों को सरकार में अभिव्यक्ति देने में सक्रिय रूप से शामिल रहता है अतः उसे नौकरशाही के मूल्यों पर लोकतंत्र के सक्रिय व सतत सरोकारों को प्राथमिकता देनी होगी। डेनहार्ट के अनुसार, संरचना की बजाय प्रक्रियाओं पर ध्यान केंद्रित करने का सुझाव देकर यह नया दृष्टिकोण संगठनात्मक व सामाजिक परिवर्तनों को प्रभावी बनाने में व्यक्ति की भूमिका को समझने की जरूरत को रेखांकित करता है।इस तरह का दृष्टिकोण त्वरित गति से परिवर्तित हो रहे समाजों की उन मांगों से संगत है जो संगठन से खासकर अनुकूलनशील होने की आशा करती हैं।और ऐसा केवल उन्हीं परिस्थितियों में संभव है जो संगठन में व्यक्ति को अपनी  सृजनशीलता व जिम्मेदारियों के निर्वहन को प्रोत्साहित करती हैं व सही अर्थों में उसे समर्थ बनाती हैं।
   अंततः यह कि लोक संगठनों में कार्य के नैतिक व राजनीतिक आधारों को एक बार फिर से प्रमुखता देकर इस परिभाषा ने ज्ञान व कार्रवाई तथा गहन अध्ययन व परिवर्तन को जोड़ने का सुझाव दिया है।इसने लोकप्रशासन सिद्धांतों में लगे लोगों हेतु नई भूमिका का सुझाव दिया है कि प्रशासन में लगे लोगों के साथ इन सिद्धांतविदों का साझा नैतिक कर्तव्य बनता है।डेनहार्ट ने लोकसेवा के नैतिक व राजनैतिक प्रकृति को पूरा सम्मान दिया है।
लोकप्रशासन को परिभाषित करने की समस्याएँ
लोक प्रशासशून्य में काम नहीं करता बल्कि समस्त समाज द्वारा सामना किए जा रहे महत्वपूर्ण दुविधाओं से पूरी तरह घुलामिला है।लेकिन इसे ब्यौरेवार ढंग से स्पष्ट करना, स्टेन के ब्दों में निष्फल उपक्रम हो जाता है। लोकप्रशासन के बहुविध चरों व जटिलताओं के कारण लोकप्रशासन की प्रत्येक गतिविधि एक अद्वितीय घटना बन जाती है और इसके किसी भी व्यवस्थित वर्गीकरण को भ्रमित कर देती है। जैसा स्टेन ने लिखा है, लोकप्रशासन एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में वर्गीकरण करने वाला होता है और जो श्रेणियाँ स्वीकृत की जाती हैं उन्हें अपेक्षाकृत क्षणभंगुर ही माना जाता है।
   फ्रेडरिक मोजर जैसे विचारकों का मत है कि लोकप्रशासन की यह मायाविता ही इसे ताकत देती है तथा इसे सम्मोहकता प्रदान करती है। मोजर ने लिखा, शायद सबसे ज्यादा बेहतर होता कि इसकी परिभाषा ही न की जाती। यह एक अनुशासन की बजाय एक रूचि का क्षेत्र ज्यादा है, एक स्वतंत्र विज्ञान की जगह ज्यादातर एक फोकस है....यह अवश्यक रूप से अंतर्विषयक (Inter-desciplinary) है। अस्पष्ट व दोहरावयुक्त इसकी सीमाओं को संसाधन के रूप में देखा जाना चाहिए यद्यपि कि कुछ व्यवस्थित दिमाग वाले व्यक्तियों के लिए यह अटपटा हो सकता है।
   राबर्ट पार्कर जैसे कुछ लेखकों के लिए इस प्रकार की अव्यवस्थित विधा से निपटने में आने वाले तनावों के कारण ही यह अध्ययन का एक परिपक्व व लाभदायक क्षेत्र नहीं बन पाता है।पार्कर लिखते हैं, वास्तव में लोकप्रशासन के रूप में ऐसा कोई विषय ही नहीं है।किसी भी विज्ञान या मानविकी को इस शीर्षक से चिन्हित नहीं किया जा सकता।इस ब्द का व्यवस्थित विचारों की दुनिया से कोई वास्ता नही है...वैज्ञानिक ज्ञान के किसी भी एक पहलू को ज्यादा स्पष्ट करने या इसका दायरा विस्तृत करने का यह कोई संतोषजनक प्रस्ताव नहीं करता।
   लोकप्रशासन के वर्तमान व भावी स्थिति के बारे में पार्कर के इस निराशावादी मूल्यांकन के बावजूद बहुत से लेखकों व सिद्धांत निर्माताओं द्वारा इसके अकादमिक व व्यावसायिक अनुप्रयोग दोनो ही क्षेत्रों में एक समान रूप से स्वीकृत सिद्धांतों की खोज जारी है।सच तो यह है कि लोकप्रशासन - इसकी सीमाएँ, क्षेत्र व उदेश्य - को परिभाषित करना हाल के दिनों में एक कठिन समस्या रही है। इसकी पहचान का संकट’ (identity crisis), जैसा वाल्डो ने इसकी दुविधाओं के संदर्भ में कहा था, अब और गहरा गया है क्योंकि लोकप्रशासन को व्याख्यायित करने वाले प्रतिमानों, दृष्टिकोणों व सिद्धांतों में प्रचुर वृद्धि हो गई है।
   लोकप्रशासन के वरिष्ठ विद्वान ड्वाइट वाल्डो लोकप्रशासन को परिभाषित करने के खतरों के प्रति हमें आगाह करते हैं।जैसा उन्होंने लिखा, लोकप्रशासन की इन सभी एक पंक्ति या एक पैराग्राफ वाली परिभाषाओं का तात्कालिक परिणाम ज्ञानोदय या उद्दीपन नहीं बल्कि मानसिक पक्षाघात के रूप में होता है।सभी परिभाषाएँ स्वाभाविक रूप से इसके अर्थ को संकीर्ण व सीमित कर देती हैं और इस प्रयास में स्पष्टता व समझ पर ग्रहण लग जाता है। सरकार का एक कार्यकारिणी क्षेत्र व एक एक्न होने के कारण लोकप्रशासन की एक निश्चित सीमा कभी रही ही नहीं है।सरकारों की गतिविधियों में ईजाफा या सिकुड़ाव उनकी संदर्भात्मक परिस्थितियों पर निर्भर करता है।और एक विधा के रूप में सुसंगत ज्ञान को विकसित करने की ख्वाहि रखने वालों को समाज में सरकार की बदलती सीमाओं को ध्यान में रखना चाहिए।
उपसंहार
   लोकप्रशासन विभिन्न  लेकिन अंतर्सम्बंधित विधाओं का समूह या समुच्चय है। परंपरागत रूप से इसकी जड़ें राजनीति विज्ञान व प्रबंधन से जुड़ी हैं, चाहे वह सुधार का मामला हो या प्रशासनिक कार्यकुलता,  मितव्ययिता, व उत्तरदायित्व संबंधी मुद्दों पर इसके सतत ध्यान देने का मसला। लेकिन अपनी सपाट व शिष्ट शुरुआत के बाद स्वयं को इसने ज्यादातर व्यवहारवादी विज्ञानों के रूप में ग्रहण करना शुरू किया।परंपरागत काल में बदलाव आया और इसे लोकप्रशासन के मानवीय आयामों के बारे में गहन अनुसंधानों से परिचित कराया गया। फिर, मानव व्यवहार की जटिलताओं व अभिप्रेरण संबंधी अध्ययनों ने समाजविज्ञानों के मनोवैज्ञानिक आयामों का सूत्रपात किया। पूरक का काम किया अर्थशास्त्र ने, जिसने उच्च स्तर की उत्पादकता सुनिश्चित करने हेतु उचित माहौल के सृजन के लिए संरचना पर ध्यान केंद्रित करने में लोकप्रशासन की मदद की। जैसे ही अर्थशास्त्रियों ने उत्पादकता के स्तर को सीधे प्रभावित करने वाले मुद्दों पर अपने सिद्धांतों को लागू करना शुरू किया वैसे ही समाजशास्त्रियों ने उन सामाजिक घटकों का अध्ययन करना शुरू किया जो प्रशासनिक व्यवहार व प्रशासनिक संस्कृति को प्रभावित करते हैं।
   वाल्डो के अनुसार लोकप्रशासन को एक कला के रूप में समझना शायद बेहतर विचार होता, लेकिन इससे भी बेहतर होता यदि इसे व्यवहारिक विज्ञान के रूप में समझा जाता। वाल्डो ऐसे लोकप्रशासन के विषय में सोचना पसंद करते हैं जो कई विधाओं से मिलकर बना हो, जिनकी लोकसेवाओं में कैरियर हेतु तैयारी में आवश्यकता होती है। वह इस विचार को सिरे से खारिज कर देते हैं कि लोकप्रशासन एक उपविधा है-खासकर राजनीतिविज्ञान की उपविधा। वह घोषित करते हैं कि लोकप्रशासन को कभी भी व्यापारिक या प्रबंधन स्कूलों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। उनका तर्क है कि प्रशासनिक तकनीकों और मूल्यों को सार्वभौमिक रूप देना संभव नहीं है। और यह भी कि लोकप्रशासन को विविध तकनीकों व विशिष्ट दर्शन की जरूरत होती है। वह चेतावनी देते हैं कि यदि लोकप्रशासन कार्यक्रमों को औद्योगिक या प्रबंधन स्कूलों में शामिल किया जाता है तो संभवतः पोषण के अभाव में उसकी धीमी मौत हो जाएगी अथवा समुचित ध्यान व अनुराग के अभाव में वह अपक्षरित हो जाएगा।


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पार्क लोक प्रशासन जर्नल (महाविशेषांक) का दूसरा आलेख

लोक प्रशासन की एक सामान्य समझ प्रमोद कुमार मिश्र